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आज एक दिन के लिये ये आसमाँ पर तुम अपना हक़ जताने चले हो अपने रंग-बिरगी पंखों से सभी को ललचाने लगते हो?
… पर ये मत भूलो तुम्हें एक डोर पकडे हुए है।
तुम डोर के सहारे आसमाँ की उंचाई नापने कि कोशिश करते हो?
तुम तो एक कठपूतली के समान हो जैसे किसी हाथ से डोर तूटी तुम भी कट जाते हो।
….और फ़िर किसी ओर के हाथों में चले जाते हो।
तुम में जान थोडी है? जो ईतना इतराते हो आसमाँ पर …!!!
एक दिन के सुलतान बने बैठे हो ।तुम हो क्या ?
तुम तो एक कागज़ के बने निर्जीव हो!!!
तुम ये मत भूलो कि हम तो एक ज़िन्दा जीव हैं।
सुबह होते ही अपने घोसलों से कहीं दूर..दूर अपने लिये तो कभी अपने बच्चों के लिये दाना चुगने जाते हैं।
शाम होते ही अपने घर लौट आते हैं फ़िर यही अपने पंखों पर..
उडना ही हमारा क्रम है।
देखना कहीं हमारे पंखों को काट मत देना वरना हम आस्माँ को फ़िर कभी छू नहिं पायेंगे।
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