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गीतकार किशन सरोज जी की पंक्ति है... कर दिए लो गंगा में प्रवाहित, सब तुम्हारे पत्र- सारे चित्र, तुम निश्चिंत रहना
चांद और फ़िज़ा, एक ऐसी कहानी जो कहानी बनकर रह गई। वास्तविकता में प्यार के नाम को बदनाम करनेवाले ये लोग समाज में एक तमाशा खडा कर देते हैं।
“प्यार” को बदनाम करते हैं।
प्यार और रिश्तों पर से विश्वास खो गया है कहीं।
लेट-कट में विनोद कापडीजी लिखते हैं कि सिर्फ़ एक सवाल- क्या प्यार भी किसी ख़ास वक़्त पर होता है? क्या प्यार में कोई ये कह सकता है कि मैं उसे कल प्यार करता था जी पर आज नहीं
करता। क्या मोहब्बत किसी समय-सीमा की मोहताज हो सकती है? प्यार का सिर्फ़ एक ही फ़ार्मूला है- प्यार होता है या प्यार नहीं होता। अगर कोई ये कहे कि मैं उसे पहले प्यार करती थी, अब
नहीं करती तो इसका मतलब साफ़ है कि वो तब भी प्यार नहीं करती थी। प्यार कोई आलू-टमाटर नहीं है कि कल थे जी और आज ख़त्म हो गए।
उन्हों ने प्यार के लिए अपने-अपने धर्म बदले । मोहब्बत के लिए परिवारों से नाता तोड़ लिया था। और अब अंजाम क्या?
कभी कभी कुछ मतलबी रिश्ते जैसे ‘चांद और फ़िज़ा’ कईं ज़िन्दगीओं की फ़िज़ाओ को निगल जाते हैं।
सवाल यह है कि धर्म बदलनेवाले ‘मौलना” क्या ये नहिं समजते कि वो कितने बडे गुनाहगार हैं।
कमसे कम वास्तविकता पर नज़र तो डाली होती। सिर्फ़ शादी के लिये ही इस्लाम क़ुबुल करवाया था। क्या इतना घटिया हो गया है तुम्हारा पेशा!!!
क्या ये कोई ख़ेल है!!! इन बनावटी रिश्तों को ,जायज़ करार देनेवाले भी इतने ही ज़िम्मेदार हैं जितने ये लोग।
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