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“महिलाओं के जीवन का दर्दनाक अंत-Jagran Junction Forum

मेरी आवाज सुनो
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जागरन जंकशन फोरम ने”महिलाओं के जीवन का दर्दनाक अंत: दोषी कौन अतिमहत्वाकांक्षा या पुरुष प्रधान रवैया? पोस्ट लिखकर हम महिलाओं को एक पोस्ट लिखने पर आख़िर तैयार कर ही दिया।

मैं इस पोस्ट पर उसी सवालों को जवाब के साथ देना चाहुंगी। क्योंकि मैं एक महिला हुं और ज़्यादातर ऐसी महिलाओं के साथ रहती हुं जो यहाँ कारागार में बंद हैं।

1. क्या भविष्य को सुधारने के लिए महिलाओं का महत्वाकांक्षी होना उनके चरित्र पर प्रश्नचिह्न लगाता है?

उ.ज़ी नहिं,महिलाओं का महत्वाकांक्षी होना गलत नहिं है। महत्वाकांक्षी तो हर कोई होता है,पुरुष भी, तो क्या वे चरित्रहिन हो जाते है?

2. क्या किसी महिला का पुरुष से प्रेम करना या उस पर विश्वास करना गलत है?

उ. महिला ,पुरुष के मुकाबले में कुछ ज़्यादा ही संवेदनशील/भावनात्मक होती है। ज़्यादातत महिलाएं प्रेम एक पूजा की तरहाँ करती हैं। तो ज़ाहिर सी बात है वो ज़रुर

विश्वास तो करेंगी ही अपने प्रेम पर।

3. स्त्रियों के साथ होने वाली ज्यादतियों के लिए पुरुषों को ही अपराधी समझा जाता है लेकिन वर्तमान हालातों के अनुसार क्या हमें अपनी इस धारणा में बदलाव नहीं लाना चाहिए?

उ. बिल्कुल बदलाव लाना चाहिये क्योंकि हर मामले में पुरुष ही ज़िम्मेदार नहिं होते।स्रियाँ भी उतनी ही ज़िम्मेदार हैं। ताली एक हाथ से नहिं बजती।

4. अगर प्रेम और विश्वास का नतीजा मौत है तो इसके लिए हमें किसे दोषी कहना चाहिए?

उ. दोनों ही दोषी हैं। एक विश्वासघात के और दुसरा अपना जीवन खतम करने के लिये।

उपरोकत सवालों के जवाब तो मैने बहोत आसानी से रख दिये।

पर सबसे बडा सवाल तो ख़डा ही है कि “महिलाओं के जीवन का दर्दनाक अंत: दोषी कौन अतिमहत्वाकांक्षा या पुरुष प्रधान रवैया?

इसका जवाब निर्भर है कि जो संबंध एक पुरुष-महिला के बीच होते हैं उस पर। क्या वो संबंध सिर्फ प्रेम के लिये हैं या अपने मतलब के लिये???? उस संबंध को “प्रेम” जैसे

पवित्र शब्द का नाम देना कैसे सही होगा? वो तो उपभोग ही कहा जायेगा दोनों के लिये।

दोनों ही अपने परिवार, अपने समाज और यहाँ तक की अपने आपको एक ऐसे दलदल की तरफ़ ढकेलते जाते हैं,

जहाँ से बाहर आनेपर दलदल ही दलदल रहता है।

तब तक परिवारों की बदनामी,और समाज की मानसिकता बदल जाती है इन लोगों के प्रति।

जो इज़्ज़त इन्होंने कमाई होती है,धूल जाने में कोई देर नहिं लगती।

रही बात महिलाओं कि, महिलाओं का महत्वाकांक्षी होना गलत नहिं है।

पर अपने मतलब/स्वार्थ को प्रेम का नाम देना गलत होगा। आगे बढने के

शोर्टकट का अंजाम भी भयानक होता है।

स्वार्थी पुरुष तो ऐसे हालात का फ़ायदा उढायेंगे ही। संभलना तो महिला को है।

मेरा तो ये मानना है कि महिलाऎं अपनी शकित से पुरुष के मनोभाव को पढ सकती हैं फ़िर फंस कैसे जाती है?

हर वक़्त पुरुष को ज़िम्मेदार नहिं ढहरा सकते। नाम और प्रसिध्धी की लालसा में कईं महिलाएं  पुरुष का इस्तेमाल करती हैं ये भी सच है। और वो खुद

ही पुरुष के उपभोग का साधन बन जाती हैं पर जब मतलब निकल जाता है तब पुरुष उसे छोड देता है उस महिला के पास अपने जीवन को समाप्त करना

एक रास्ता बच जाता है इसमें महिला भी उतनी ही दोषी है जितना कि पुरुष।

सारा दोष पुरुष पर लगाना कहाँ का इंसाफ़ होगा??

अगर महिला को शिकायत है कि उसके साथ नाइंसाफ़ी हुई है तो वो कोर्ट की राह अपना सकती है।

जीवन को समाप्त करना और उसमें पुरुष को ही दोष देना सही नहिं है।

अभी हाल ही में सब से बडा उदाहरन है रोहित शेखर और उसकी  मां उज्जवला शर्मा का किस्सा। जिन्हों ने अपने समाज/दुनिया की परवाह न करते हुए एक

राजनितीक पार्टी के एक बडे नेता के सामने ट्क्कर लेकर अपनी बात कोर्ट के सामने रख़ी और जीत गये।

अगर सच को सामने लाना है तो अदालत के दरवाज़े पर “दस्तक” तो देनीपडेगी।

फिर वहाँ दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा।


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